भारतीय संस्कृति को व्रत और त्यौहारों की संस्कृति कहा जाता है। हर मास और तिथि को किसी न किसी त्यौहार का महत्व शास्त्रों में दिया गया है। हर तिथि देवी-देवता को समर्पित है और पर्वों को खाने-खजाने से लेकर विभिन्न तरह के रंग-बिरंगे परिधानों से जोड़ा गया है।
हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित ऐसा ही एक पर्व है कालाष्टमी। यह पर्व कालभैरव को समर्पित है। इस दिन भैरव महाराज की पूजा- आराधना से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। कालभैरव का जन्म शिव के क्रोध से हुआ था। और मान्यता है कि इसी तिथि को भैरव महाराज का जन्म हुआ था इसलिए कालाष्टमी को भैरव अष्टमी भी कहा जाता है। देव भैरव को साक्षात दुष्टों का काल माना जाता है इसलिए इनको दंडपाणी भी कहा जाता है।
एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य विवाद हो गया। दोनों अपने को श्रेष्ठ बताकर श्रीशिव को तुच्छ कहने लगे। तब श्रीशिव के क्रोध से भैरव नाम विकराल पुरुष उत्पन्न हुए। श्रीभैरव का स्वरूप अत्यंत भयानक साक्षात काल के समान था, जिससे काल भी डरता था। जिससे इनका नाम कालभैरव हुआ। श्रीशिव ने कालभैरव को ब्रह्मा पर शासन कर संसार का पालन करने का आदेश दिया।
भोलेनाथ की आज्ञा का पालन करते हुए श्रीकालभैरव ने ब्रह्माजी का पांचवा शिर अपने नरवाग्र से काट दिया। तब भयभीत होकर ब्रह्मा- विष्णु श्रीमहाकाल को शरणागत हो गए। तब श्रीशिव ने दोनों को क्षमा करते हुए अभयदान दिया और श्रीकालभैरव से कहा कि, चूंकि श्रीभैरव भक्तों के पापों का तत्काल नाश कर देंगे अत: भैरव महाराज का नाम पापभक्षण भी होगा। साथ ही श्री विश्वनाथ ने अपनी प्रियनगरी काशी का कोतवाल भी उनको बनाया।
नारद पुराण के अनुसार कालाष्टमी को कालभैरव और मां दुर्गा दोनों की आराधना करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। इस दिन माता के कालिका स्वरूप की आराधना अर्धरात्रि में करने का विधान है। कालाष्टमी को कुत्ते की सेवा करने से भी शुभ फल की प्राप्ति होती है।